इक शहर की आत्मकथा
मेरा मालिक बदल गया। ये मेरे जीवन का अहम मोड़ था। मैं नहीं जानता था कि नियति मुझे कहां ले जाएगी, और आने वाले दिनों में मेरा स्वरुप क्या होगा ?
खैर... कितने ही बदलाव देखे हैं, मेरी बूढ़ी आंखों ने। शायद तुम्हें आश्चर्य लगे। कितनी ही बार मेरे शिखऱ नीचे को दरक आए ? लगा.... मानों मैं मर जाऊंगा। १८६७ में शेर का डांडा और १९ सितंबर १८८० को विक्टोरिया होटल के पास भीषण भूस्खलन हुआ। इसमें १५१ लोग मारे गए। मरने वालों में ४३ गोरे भी थे। ये भूस्खलन इतना ज़ोरदार था, कि इससे मेरा वर्तमान भी जुड़ा है। इसी भू-स्खलन में वर्तमान फ्लैट का निर्माण हुआ। आज यहां पर लोग क्रिकेट और फुटबॉल के मैच खेलते हैं।
इस भू-स्खलन के कुछ साल बाद ९ अगस्त १८९८ को कैलाखान पहाड़ी पर भू-स्खलन से बलियानाला दुर्गापुर नाले की ओर मुड़ गया। समें २९ लोग मारे गए।
१८९१, १९०१, १९४२ में भी ... मैंनै भीषण भूस्खलन देखे हैं। कई लोग मरे ... इसमें। प्रकति मुझे बार-बार बदलती रही है। नैनादेवी के मंदिर को ही लो। जब अग्रेज व्यापारी बैरन यहां या, उससे पहले यह तल्लीताल डांट के पास था, जहां आजकल डाकघर है। बैरन ने अपनी किताब 'हिमाला' में भी इसका वर्णन किया है। फिर नैना देवी मंदिर को वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास बनाया गया। इसके भू-स्खलन में दब जाने पर, १८८० में ये मंदिर वर्तमान स्थान पर शहर की जानीमानी हस्ती लाल मोतीराम साह जी ने बनवाया।
बैरन मेरे सौंदर्य से अभिभूत तो था ही। उसने मुझे आबाद करने के मन से कलकत्ता से निकलने वाले अखबार 'आगरा अखबार' में मेरे बारे में लिखा। बैरन यहां एक शहर बसाना चाहता था। खबर छपने के बाद कई अंग्रेज यहां की ओर आकर्षित हुआ। और इस प्रकार १८४१ में नैनीताल शहर का निर्माण शुरू हो गया। सबसे पहले बैरन ने अपने लिए एक कोठी बनायी। इसके बाद कुमांऊ के तत्कालीन कमिश्नर लाशिंगटन ने १८४१ में अपने लिए एक कोठी का निर्माण करवाया। इसी वक्त १८४०-४१ के आसपास नैनीताल शहर का बंदोबस्त हुआ।
भारतीयों में सबसे पहले कोठी बनाने वालों में लाला मोतीराम साह थे। इस प्रकार नैनीताल में धीरे-धीरे कोठियां बनने का सिलसिला शुरू हो गया। सन् १८५७ में यहां प्रांतीय लाट रहने लगा। १८६२ में उसने अपनी कोठी रैमजे हॉस्पिटल के पास बनवायी।... १८६५ में पहले लाट डूमंड ने अपनी कोठी शेर का डांडा में बनवायी। इसी कोठी में बाद के कई लाट रहे।
अरे ... एक बात तो मैं पीछे ही छोड़ या। १८४१ में जब शहर का निर्माण शुरू हुआ, तो इससे ठीक चार साल बाद यानि १८४५ में मुझे नगरपालिका क्षेत्र बना दिया गया। बहुत कम लोग जानते हैं, कि मैं भारत का दूसरा सबसे पुराना नगरपालिका क्षेत्र रहा हूं। उसी समय से शहर की पूरी ज़िम्मेदारी नगरपालिका के ऊपर गयी। जब नगरपालिका अस्तित्व में आई, तब इसकी आमदनी ८००-९०० रुपे सालाना थी। धीरे-धीरे इसकी मदनी बढ़ती गयी, और १९३२ में नगरपालिका पांच लाख पांच हज़ार एक सौ चौबीस रुपए की अच्छी ख़ासी कमाई करने लगी।
बुधवार, 18 मार्च 2009
शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009
नैनीताल बचाओ अभियान
आखिर क्या है, नैनीताल बचाओ अभियान ? और किसलिए पड़ी इस अभियान की जरुरत ? ये सवाल लाजिमी है। लेकिन नैनीताल को करीब से जानने वाले समझते हैं, कि नैनीताल को बचाना ज़रुरी क्यों है ? बुजुर्ग बताते हैं, नैनीताल काफी बदल गया है। आप कहेंगे हर शहर एक दौर के बाद बदलता ही है, तो इसमें नया और अनोखा क्या है ? लेकिन इस सवाल का जवाब समझने से पहले ज़रुरी है कि नैनीताल शहर के भूगोल को समझा जाए।
नैनीताल तीन ओर पहाड़ों से घिरा है, बीच में झील है। पहाड़ियों में मकान पहले भी थे, लेकिन लोगों के बढ़ने से इन मकानों की संख्या भी काफी बढ़ गयी है। ज़ाहिर है पेड़ कटते जा रहे हैं। निर्माण कार्यों के लिए खुदाई हो रही है, जिससे पहाड़ ढीले होते जा रहे हैं। non में पानी के साथ पहाड़ की मिट्टी नीचे को दरक जाती है। ये मिट्टी बहकर सीधे झील में पहुंच जाती है। सालों से जारी इस प्रक्रिया ने झील की जल संग्रहण क्षमता को कम कर दिया है। इसकी वजह से दुनिया भर में मशहूर सुंदर झील का पानी गर्मियों के दिनों में काफी सूख जाता है।
लोग साल दर साल बढ़ रहे हैं। बढ़े लोग पहले से ज्यादा कचरा पैदा करते हैं। फास्ट फूड के जमाने में कचरे की किसी को परवाह नहीं। रोज टनों के हिसाब से कचरा पैदा हो रहा हैं। लोग जरा भी परवाह नहीं करते कि उनके कचरे से एक शहर तबाह हो रहा है। नैनीताल में रहने वाले भी खूब कचरा बना रहे हैं। लोग उस वक्त और ज़्यादा कचरा पैदा करते हैं, जब उन्हें अपने शहर से प्यार नहीं होता। नैनीताल घूमने आने वाले पर्यटकों से ये उम्मीद बेमानी है, वो चिंता नहीं करेंगे। हां जब विदेशी इस शहर में आते हैं, तो वो याद रखते हैं, कि कचरा कहां डालना है।
लेकिन हम नहीं समझते। ये भी नहीं समझते कि ये कचरा फैल-फैलकर एक खूबसूरत शहर को बदहाल कर रहा है।
नैनीताल तीन ओर पहाड़ों से घिरा है, बीच में झील है। पहाड़ियों में मकान पहले भी थे, लेकिन लोगों के बढ़ने से इन मकानों की संख्या भी काफी बढ़ गयी है। ज़ाहिर है पेड़ कटते जा रहे हैं। निर्माण कार्यों के लिए खुदाई हो रही है, जिससे पहाड़ ढीले होते जा रहे हैं। non में पानी के साथ पहाड़ की मिट्टी नीचे को दरक जाती है। ये मिट्टी बहकर सीधे झील में पहुंच जाती है। सालों से जारी इस प्रक्रिया ने झील की जल संग्रहण क्षमता को कम कर दिया है। इसकी वजह से दुनिया भर में मशहूर सुंदर झील का पानी गर्मियों के दिनों में काफी सूख जाता है।
लोग साल दर साल बढ़ रहे हैं। बढ़े लोग पहले से ज्यादा कचरा पैदा करते हैं। फास्ट फूड के जमाने में कचरे की किसी को परवाह नहीं। रोज टनों के हिसाब से कचरा पैदा हो रहा हैं। लोग जरा भी परवाह नहीं करते कि उनके कचरे से एक शहर तबाह हो रहा है। नैनीताल में रहने वाले भी खूब कचरा बना रहे हैं। लोग उस वक्त और ज़्यादा कचरा पैदा करते हैं, जब उन्हें अपने शहर से प्यार नहीं होता। नैनीताल घूमने आने वाले पर्यटकों से ये उम्मीद बेमानी है, वो चिंता नहीं करेंगे। हां जब विदेशी इस शहर में आते हैं, तो वो याद रखते हैं, कि कचरा कहां डालना है।
लेकिन हम नहीं समझते। ये भी नहीं समझते कि ये कचरा फैल-फैलकर एक खूबसूरत शहर को बदहाल कर रहा है।
हम क्या कर सकते हैं ?
समस्या तो हर जगह है। समस्या किसके साथ नहीं ? लेकिन समस्या के हल निकालने पड़ते हैं। नैनीताल का स्वरुप बिगड़ रहा है, तो इसे सहेजने के भी रास्ते होंगे। हमें उन्ही रास्तों को ढूंढना है। और दो चार कदम बढ़ाने हैं, मिलकर एकसाथ। यकीन मानिए, अगर शहर को बरबाद करने वालों की कमी नहीं है, तो इसे सहेजने वालों की भी कमी नहीं। लेकिन शहर को सहेजने वाले अलग-अलग खड़े हैं। और बरबाद करने वाले एकसाथ खूबसूरत शहर को बरबादी की ओर ले जा रहे हैं। हमें एक साथ खड़े होकर एक कोशिश तो करनी ही चाहिए। क्या आपको लगता है, कि ये नहीं हो सकता ? शायद ये बहुत आसान है। हम पढ़े लिखे हैं, सूचनाओं के संसार में रहते हैं। हमारे दोनों हाथों में सूचना है, हमारे पास संसाधन भी है, और कुछ करने का जज़्बा भी। लेकिन हम कदम आगे नहीं बढ़ाते। हम डरते हैं कि हम अकेले हैं। लेकिन हम कभी अकेले नहीं होते। यही सोचकर नैनीताल में कुछ लोग नैनीताल बचाओ अभियान चला रहे हैं। उनके साथ भी कम ही लोग हैं, लेकिन लोग जुड़ रहे हैं। बच्चों को समझ आ रहा है, और वो इसमें ख़ासी रुचि लेते हैं। लेकिन हमें इसे बड़ा रुप देना है। एकबार कोशिश तो करनी ही चाहिए। खुद से एकबार पूछकर देखिए। शायद आपका मन हां कहे।.... अगर ऐसा हुआ, तो अबकी बार जब घर जाओ, तो आस-पड़ोस वालों से कहना, झील को कचरे का डिब्बा मत बनाओ। उन्हें समझाना कि कैसे कचरे को सही जगह पर डालकर वो नैनीताल को बचा सकते हैं। उन्हें बताना कि कैसे पेड़ लागकर वो हरियाली को बढ़ा सकते हैं। अगर इतना भी किया तो काफी होगा।
सुनो, मैं नैनीताल बोल रहा हूं : एक
इक शहर की आत्मकथा
मैं नैनीताल हूं। पर अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब मेरे वस्त्रों की तुरपन उधड़ गयी है। मेरे शरीर पर तीखी दरारें उभर आई हैं। मेरी आंखें, आज सब कुछ बदला-बदला सा देख रही हैं। जिसे जहां मन करता है, वही मुझको ठोक-पीट रहा है। तुम सोचोगे, मैं सठिया गया हूं, इसलिए अनाप-शनाप बक रहा हूं। पर १६७ साल होने पर भी मुझे सबकुछ याद है।
आओ, थोड़ा पीछे लेकर चलूं तुमको। बहुत पुरानी बात है। १६९ साल पहले की बात है। मैं चारो ओर घने पेड़ों से घिरा अकेला रहता था। मेरे दो ही साथी थे, तब। एक नैना देवी का मंदिर, और दूसरा साफ पानी से भरा ताल। हां, तब भी साल में एकबार यहां बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी। साल में जब एकबार नैना देवी के मंदिर में मेला लगता, तो लोग दूर-दूर से यहां आते थे। घुप्प शांति के बीच नैना देवी के जयकारों के बीच मैं डूब जाता। १९४१ तक मेरी सीमाओं की देखभाल थोकदार नरसिंह किया करता था।
पहली बार १८३९ में एक फिरंगी ट्रेल की नज़रें मुझ पर पड़ी। इसके ठीक दो साल बाद १८४१ में एक और फिरंगी मिस्टर बैरन यहां पहुंचा। बैरन शराब का व्यवसायी था। जब उसने तीन ओर पहाड़ों से घिरे मेरे सौंदर्य को देखा तो उसने मन ही मन एक फैसला कर लिया। वो मुझे थोकदार नरसिंह से खरीदना चाहता था।
थोकदार नरसिंह, मुझे पवित्र भूमि कहता था। वो मुझे उस अंग्रेज को नहीं सौंपना चाहता था। लेकिन बैरन ने किसी तरह जुगत भिड़ाकर नरसिंह से मेरा मालिकाना अपने नाम करवा लिया। मेरा मिलाक बदल गया। पुराना मालिक ५ रुपए माहवार पर मेरा पटवारी बन गया। उस दिन मैं पहली बार रोया था।
मैं नैनीताल हूं। पर अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब मेरे वस्त्रों की तुरपन उधड़ गयी है। मेरे शरीर पर तीखी दरारें उभर आई हैं। मेरी आंखें, आज सब कुछ बदला-बदला सा देख रही हैं। जिसे जहां मन करता है, वही मुझको ठोक-पीट रहा है। तुम सोचोगे, मैं सठिया गया हूं, इसलिए अनाप-शनाप बक रहा हूं। पर १६७ साल होने पर भी मुझे सबकुछ याद है।
आओ, थोड़ा पीछे लेकर चलूं तुमको। बहुत पुरानी बात है। १६९ साल पहले की बात है। मैं चारो ओर घने पेड़ों से घिरा अकेला रहता था। मेरे दो ही साथी थे, तब। एक नैना देवी का मंदिर, और दूसरा साफ पानी से भरा ताल। हां, तब भी साल में एकबार यहां बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी। साल में जब एकबार नैना देवी के मंदिर में मेला लगता, तो लोग दूर-दूर से यहां आते थे। घुप्प शांति के बीच नैना देवी के जयकारों के बीच मैं डूब जाता। १९४१ तक मेरी सीमाओं की देखभाल थोकदार नरसिंह किया करता था।
पहली बार १८३९ में एक फिरंगी ट्रेल की नज़रें मुझ पर पड़ी। इसके ठीक दो साल बाद १८४१ में एक और फिरंगी मिस्टर बैरन यहां पहुंचा। बैरन शराब का व्यवसायी था। जब उसने तीन ओर पहाड़ों से घिरे मेरे सौंदर्य को देखा तो उसने मन ही मन एक फैसला कर लिया। वो मुझे थोकदार नरसिंह से खरीदना चाहता था।
थोकदार नरसिंह, मुझे पवित्र भूमि कहता था। वो मुझे उस अंग्रेज को नहीं सौंपना चाहता था। लेकिन बैरन ने किसी तरह जुगत भिड़ाकर नरसिंह से मेरा मालिकाना अपने नाम करवा लिया। मेरा मिलाक बदल गया। पुराना मालिक ५ रुपए माहवार पर मेरा पटवारी बन गया। उस दिन मैं पहली बार रोया था।
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