शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

सुनो, मैं नैनीताल बोल रहा हूं : एक

इक शहर की आत्मकथा

मैं नैनीताल हूं। पर अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब मेरे वस्त्रों की तुरपन उधड़ गयी है। मेरे शरीर पर तीखी दरारें उभर आई हैं। मेरी आंखें, आज सब कुछ बदला-बदला सा देख रही हैं। जिसे जहां मन करता है, वही मुझको ठोक-पीट रहा है। तुम सोचोगे, मैं सठिया गया हूं, इसलिए अनाप-शनाप बक रहा हूं। पर १६७ साल होने पर भी मुझे सबकुछ याद है।

आओ, थोड़ा पीछे लेकर चलूं तुमको। बहुत पुरानी बात है। १६९ साल पहले की बात है। मैं चारो ओर घने पेड़ों से घिरा अकेला रहता था। मेरे दो ही साथी थे, तब। एक नैना देवी का मंदिर, और दूसरा साफ पानी से भरा ताल। हां, तब भी साल में एकबार यहां बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी। साल में जब एकबार नैना देवी के मंदिर में मेला लगता, तो लोग दूर-दूर से यहां आते थे। घुप्प शांति के बीच नैना देवी के जयकारों के बीच मैं डूब जाता। १९४१ तक मेरी सीमाओं की देखभाल थोकदार नरसिंह किया करता था।

पहली बार १८३९ में एक फिरंगी ट्रेल की नज़रें मुझ पर पड़ी। इसके ठीक दो साल बाद १८४१ में एक और फिरंगी मिस्टर बैरन यहां पहुंचा। बैरन शराब का व्यवसायी था। जब उसने तीन ओर पहाड़ों से घिरे मेरे सौंदर्य को देखा तो उसने मन ही मन एक फैसला कर लिया। वो मुझे थोकदार नरसिंह से खरीदना चाहता था।
थोकदार नरसिंह, मुझे पवित्र भूमि कहता था। वो मुझे उस अंग्रेज को नहीं सौंपना चाहता था। लेकिन बैरन ने किसी तरह जुगत भिड़ाकर नरसिंह से मेरा मालिकाना अपने नाम करवा लिया। मेरा मिलाक बदल गया। पुराना मालिक ५ रुपए माहवार पर मेरा पटवारी बन गया। उस दिन मैं पहली बार रोया था।

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